मोरन नदी के किनारे विराजमान है जागेश्वर महादेव...
मोरन नदी के किनारे विराजमान है जागेश्वर महादेव...
वैसे तो वागड़ (डूंगरपुर-बांसवाड़ा) लोढ़ी काशी के नाम से जाना जाता है क्योकि यहाँ पर आपको हर 2 किलोमीटर के दायरे में एक शिवालय अवश्य मिल जायेगा। ऐसे ही शिवालयों की जानकारी में आज हम आपको दर्शन करवाते है मोरन नदी के किनारे विराजमान जागेश्वर महादेव। यह शिवालय डूंगरपुर ज़िला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर सागवाड़ा मार्ग पर रंगथौर गाँव में स्थित है. यहाँ आकर मन प्रफुल्लित हो उठता है यहाँ का वातावरण चारो तरफ हरियाली एक तरफ मोरन नदी तथा पास में ही लोडेश्वर बांध का मनमोहक दृश्य को देखकर हर कोई मंत्रमुग्ध हो जाता है।
मंदिर का इतिहास
मंदिर के इतिहास की तरफ झांके तो मंदिर के अंदर एक शिला लेख उपलब्ध जिसके अनुसार (आषाढ़ादि) वि० सं० १७३१ (चैत्रादि १७३२) शाके १५६७ वैशाख सुदि ६ (ई० स० 1675 ता० 21 अप्रैल) बुधवार पुष्य नक्षत्र को महारावल जसवंत सिंह जी (प्रथम)(1661-1691) (24वें महारावल डूंगरपुर) द्वारा शिवालय बनाये जाने का वर्णन है। शिलालेख के अनुसार महारावल जसवंत सिंह जी प्रथम के ज्योतिषी चौबीसा जाति के जागेश्वर की स्त्री द्वारा उक्त शिवालय के बनाये जाने का उल्लेख है और साथ ही जागेश्वर की विद्व्ता का वर्णन है।
जीर्णोद्धार के लिए हुए कई प्रयास
चौबीसा समाज द्वारा जीर्णोद्धार
गांव के ही धनेश्वर चौबीसा द्वारा उपलब्ध करवाए गए एक पुराने लेख के अनुसार-
"चौबीसा जाति कुलभषण श्री जागेश्वर (जागाजी) तथा उनकी धर्म-परायणा पत्नी के द्वारा के द्वारा निर्मित ग्राम रंगथौर का शिव मंदिर बनते-बनते अधूरा रह गया है, उसे पूर्ण करना हम जाति बंधुओ डीके पवित्र कर्तव्य हो जाता है। इस मंदिर संक्षिप्त परिचय मिला है। मंदिर के शिला लेख एवं डूंगरपुर राज्य इतिहास आलेखन के अनुसार :-
राज-ज्योतिषी विद्या निधि, वेद, विधान कर्ता, ज्ञान, कुबेर, पुण्य, पवित्र भक्तानुरागी, वाराणसी सुविधा अभ्यासी, गुरु भक्त, शास्त्रार्थ कर्ता, शिव भक्त, ब्राम्हण श्रेष्ठ, सदा वंदनीय, वशिष्ठ कुलभूषण परम पूज्य जागेश्वर (जागाजी) रम्य रंगथौर में निवास करते है जिनकी कीर्ति भानुज्योर्ति सदृश्य है।
इन शिलान्यास की प्रतिष्ठा पूज्य श्रीमान महाराजाधिराज गिरिधरेश कुलभूषण के यशस्वी पुत्र जशवन्त सिंह पुण्य पुरोधा (जसवंत सिंह जी महारावल ईस्वी सन 1661 से 1691) की आज्ञानुसार मय पटराणी जी फूलकुंवरि जी वीरपुर सोलंकिनी एवं स्वयं महाराजाधिराज के सानिध्य में विक्रम संवत 1731 शाके 1597 वैशाख सुदी 6 बुधवार तदनुसार 21 अप्रैल 1975 ई० पुष्य नक्षत्र में मंदिर प्रतिष्ठा संपन्न हुई।
यह पुरातन ऐतिहासिक गौरवमय शिवालय जो जर्जर अवस्था में है उसका जीर्णोद्धार करना अनिवार्य प्रतीत है। दिनांक 23 दिसंबर 1981 के दिन दिवंगत श्री गणपत लाल जी निवासी रंगथौर की उत्तर क्रिया के अवसर पर उपस्थित समस्त चौबीसा समाज ने इस ऐतिहासिक शिवालय के निरिक्षण के पश्चात् जीर्णोद्धार का संकल्प किया और यह निश्चय हुआ है कि प्रतिष्ठित शिवालय का जीर्णोद्धार का कार्य संपन्न करने हेतु आवश्यक धन संग्रह कर यथा शीघ्र कार्य प्रारम्भ कर दिया जाये। इस जीर्णोद्धर के लिए लगभग 50,000/- अक्षरे पचास हज़ार रूपये धन राशि की आवश्यकता होगी।
अतः सर्व धर्म प्रेमी बंधुओ निवेदन है कि इस महान पुण्य कार्य में अपनी आर्थिक शक्ति अनुसार अधिकाधिक दान देकर पुण्य लाभ प्राप्त करे।
उक्त कार्य करने के लिए एक कार्यकारिणी का निर्माण भी किया गया-
1 - श्री देवीलाल चौबीसा (डूंगरपुर) अध्यक्ष
2 - श्री भगवती शंकर जी चौबीसा (रंगथौर) उपाध्यक्ष
3 - श्री ओम प्रकाश जी चौबीसा (रंगथौर) महामंत्री एवं कोषाध्यक्ष
4 - श्री गौरीशंकर जी चौबीसा (रंगथौर) उपमंत्री
गुजराती पाटीदार समाज के आव्हान पर गाँव द्वारा जीर्णोद्धार
हाल ही में गुजराती पाटीदार समाज के प्रतिनिधियों के आव्हान से गांव के समस्त परिवारों जिसमे चौबीसा, आदिवासी समाज, नाई आदि द्वारा दान राशि लगभग 21 लाख एकत्रित कर उक्त शिवालय का जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया गया तथा लगभग कार्य पूर्ण हो चूका है। शिवालय के 5 दिवसीय प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का आयोजन 27 अप्रैल 2020 से 1 मई 2020 तक किया जाना था किन्तु कोरोना महामारी के कारण देशव्यापी लॉकडाउन को देखते हुए इस कार्यक्रम को स्थगित करना पड़ा। उक्त कार्यक्रम को भव्यता से करना सुनिश्चित किया गया था जिसमे सम्पूर्ण वागड़ (डूंगरपुर-बांसवाड़ा) के समस्त गुजराती पाटीदार समाज को आमंत्रित किया गया था।
शिवालय के जीर्णोद्धार में गांववासियों का रहा है विशेष सहयोग
ग्रामीणों के अनुसार लगभग चार सौ साल पुराने इस शिवालय के जीर्णोद्धार में ग्रामीणों का विशेष सहयोग रहा है। गाँव के प्रत्येक घर से तन-मन-धन से सहयोग प्राप्त हुआ है। आप इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते है कि गाँव के सभी घरो द्वारा अपनी एक फसल को हर साल मंदिर के नाम कर दिया है। लोडेश्वर के भराव क्षेत्र में होने के कारण यहाँ पर खरबूजे की खेती अच्छी होती है वैसे यहाँ पर गेंहू, चना, सोयाबीन आदि भी अच्छा होता है लेकिन गर्मी के मौसम से खरबूजे की खेती अच्छी होती है। यहाँ का खरबूजा राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों में निर्यात किया जाता है। ग्रामीणों द्वारा उक्त खरबूजे की पूरी फसल की कमाई को मंदिर जीर्णोद्धार हेतु दान कर दिया जाता है।
हर वर्ष महाशिवरात्रि के दिन आते है बड़ी संख्या में श्रद्धालु
जैसा कि हमने आपको बताया कि वागड़ (डूंगरपुर-बांसवाड़ा) में अनेको शिव मंदिर है तथा शिव मंदिरो का अपना-अपना विशेष महत्व है डूंगरपुर की अगर हम बात करे तो बेणेश्वर, भुवनेश्वर, गौरेश्वर, सिद्धेश्वर, संगमेश्वर, नीलकंठ, सलारेश्वर आदि कई शिव मंदिर है उनमे से ही एक रंगथौर का जागेश्वर महादेव मंदिर। शिवरात्रि के शुभ अवसर पर यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते है तथा यहाँ के ग्रामीणों द्वारा श्रद्धालुओं के लिए फलाहारी की व्यवस्था की जाती है तथा प्रसाद का वितरण किया जाता है।
गांव में है और भी कई मंदिर
1- माँ कालिका मंदिर
गांव के अंतिम छोर पर मोरन नदी के मध्य मां कालिका का मंदिर स्थित है जो कितना पुराना है उसकी किसी को जानकारी नहीं है। गांव के लक्ष्मण खांट द्वारा जानकारी मिलती है कि किवदंतियो में कहा जाता है मंदिर एक टापूनुमा पहाड़ी पर अवस्थित है जिसके पिछले छोर में एक गुफा हुआ करती थी जिसके अंदर से अनवरत शुद्ध जल निरंतर बहता तथा गुफा के अंदर माँ हिंगलाज साक्षात् विराजमान थी तथा ध्यान से देखने पर माँ हिंगलाज झूले में झूलते हुए नज़र आती थी। लेकिन पुरानी मान्यताओं के अनुसार किसी अशुद्ध नारी (माहवारी के दौरान) ने वहाँ पर अपने कपडे धोये उस दिन से वहाँ से जल का बहाव बंद हो गया साथ ही धीरे-धीरे वो गुफा भी बंद हो गई। वर्तमान में गुफा का एक छोटा सा अवशेष मौजूद है। आज आदिवासी समुदाय द्वारा इसकी पूजा अर्चना धूम-धाम से की जाती है साथ ही हर वर्ष आषाढ़ माह में तथा भादो माह में विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। जिसका मूल उद्देश्य समय पर बारिश का आना तथा फसल को किसी प्रकार का नुकसान न होना माना जाता है। पुरानी मान्यताओं के अनुसार माँ कालिका को बलि भी दी जाती है।
2 - धौलकी माता मंदिर
गाँव के मध्य में चौराहे पर स्थित है माँ धौलकी का प्राचीन मंदिर इस मंदिर के अंदर भी एक शिलालेख उपलब्ध है लेकिन आज तक इसको पढ़ा नहीं जा सका है गांव के जीवण पाटीदार तथा बुजुर्गो से मिली जानकारी अनुसार प्राचीनकाल से ही इन मंदिर को इसी अवस्था में देखा जा रहा है। गुजराती पाटीदार समाज द्वारा इस मंदिर का रख-रखाव एवं पूजा अर्चना की जाती है। इस मंदिर में भी वर्ष में 2 बार विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है तथा इस पूजा के दौरान जल की विशेष पूजा की जाती है तथा उस जल को गांव के सभी घरो में बांटा जाता है, मान्यता है की इस जल को पिने से किसी प्रकार का रोग नहीं होता है तथा शरीर स्वस्थ रहता है।
3 - गोविन्द गुरु की धूणी
गांव में ही रामा तालाब तथा मोरन नदी के मध्य छोटी पहाड़ी पर एक धूणी स्थित है। जिसकी स्थापना संप सभा संस्थापक गोविन्द गुरु ने स्वयं की थी। गोविन्द गुरु ने जनजाति क्षेत्र में जनजागरण हेतु विशेष कार्य किये जिसमे उन्होंने गांव-गांव जाकर सामाजिक कुरीतियों को मिटाने में अहम् भूमिका निभाई थी। मिली जानकारी अनुसार धूणी की स्थापना के पश्चात् वहां पर कोटवाल नियुक्त किया जाता है जो लोगो को संप सभा के उद्देश्यों को जन-जन तक पहुँचता है।
4 - माँ अम्बाजी का मंदिर
जागेश्वर शिवालय के मुख्य मार्ग में ही विराजमान है माँ अम्बाजी। यह गाँव का नवीनतम मंदिर है इसकी स्थापना वर्ष 2006 में की गयी। मंदिर निर्माण के पीछे की मंशा थी की जागेश्वर महादेव मंदिर के पास खुला स्थान है जहाँ पर हर वर्ष नवरात्री में गरबा का आयोजन होता है लेकिन वर्ष 2006 से पूर्व यहाँ पर कोई मंदिर नहीं था इस स्थान को स्थाई करने के लिए माँ अम्बा का मंदिर निर्माण का फैसला हुआ तथा गाँव के ही स्वर्गीय अमरा खांट ने इस मंदिर को बनाने का प्रण लिया। दान राशि एकत्रित करने के लिए हर संभव प्रयास किया तथा प्रवासी लोगो से संपर्क कर वहां से भी दान की राशि एकत्रित की तथा वर्ष 2006 में मंदिर बन कर तैयार हुआ इसके पश्चात् वर्ष 2008 में हिम्मत कुमार रोत ने अपनी बाधा अनुसार माँ अम्बा की मूर्ति की स्थापना की तथा प्राण-प्रतिष्ठा करवाई।
5 - जागेश्वर शिवालय के पास ही है बाला हनुमान जी का मंदिर
जागेश्वर शिवालय के पास ही स्थित है बाला हनुमान जी का मंदिर।
मंदिर के इतिहास के बारे में देखे तो पता चलता है कि जागेश्वर शिवालय के साथ ही इस मंदिर का निर्मण हुआ है। मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर में ली हुई हर बाधा अवश्य पूर्ण होती है। प्रायः यह देखा गया है की गांव बच्चो से लकर बड़ो तक हर व्यक्ति ने इस मंदिर में बाधा अवश्य ली होगी। बच्चो की बात करे तो परीक्षा परिणाम तथा अच्छी शिक्षा हेतु और बड़ो की बात की जाए तो व्यवसाय के लिए यहाँ बाधा ली होगी। गांव का कोई भी व्यक्ति गाँव से बाहर नौकरी, व्यवसाय अथवा रोजगार हेतु बाहर जाता है तो इस मंदिर में माथा अवश्य टेकता है।
हिमालय से नाता है इस शिवालय का
शिवालय के पुजारी तुलसीराम जी सेवक से बात करने पर पता चलता है कि जागेश्वर महादेव का नामकरण तथा इसका सम्बन्ध हिमालय से रहा है। INDITALES वेबसाइट के अनुसार अपने श्वसुर दक्ष प्रजापति का वध करने के पश्चात, भगवान् शिव ने अपने शरीर पर पत्नी सती के भस्म से अलंकरण किया व यहाँ ध्यान हेतु समाधिस्थ हुए। कहानियों के अनुसार यहाँ निवास करने वाले ऋषियों की पत्नियां शिव के रूप पर मोहित हो गयीं थीं। इससे ऋषिगण बेहद क्रोधित हो गए थे और भगवान् शिव को लिंग विच्छेद का श्राप दिया था। इस कारण धरती पर अन्धकार छा गया था। इस समस्या के समाधान हेतु ऋषियों ने शिव सदृश लिंग की स्थापना की व उसकी आराधना की। उस समय से लिंग पूजन की परंपरा आरम्भ हुई। यह भी कहा जाता है कि भूल ना होते हुए भी श्राप देने के जुर्म में शिव ने उन सात ऋषियों को आकाश में स्थानांतरित होने का दण्ड दिया।
रंगथौर गाँव परिचय
रंगथोर गाँव राजस्थान के डूंगरपुर जिले की सागवाड़ा तहसील में स्थित है। यह उप-जिला मुख्यालय सागवाड़ा से 13 किमी दूर और जिला मुख्यालय डूंगरपुर से 35 किमी दूर स्थित है। 2009 के आंकड़ों के अनुसार, रंगथोर गांव की ग्राम पंचायत नंदौड़ थी जो वर्तमान में गड़ा वेजनिया है।
गाँव का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 141 हेक्टेयर है। रंगथोर की कुल आबादी 802 लोगों की है। रंगथोर गांव में लगभग 153 घर हैं। सागवाड़ा रंगथोर का निकटतम शहर है जो लगभग 13 किमी दूर है।
यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता मंत्रमुग्ध कर देने वाली जो भी पर्यटक यहाँ आता है मानो उसका मन ठहर जाने को करता है। रंगथौर गांव से मात्र 2 किमी दूर है लोडेश्वर बांध जो इसकी खूबसूरती को चार चाँद लगा देता है। गांव निकट ही विराट गांव स्थित है जहाँ पर कई स्वयंभू शिवलिंग तथा महाभारत कालीन अवशेष मौजूद है।





















Good work bhaiya
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